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SRI SRIRAMKRISHNA

This man came to live near Calcutta now Kolkata, the capital of then British India, the most important University town in our country which was sending out septics and materialists by the hundred every year. Yet many of these university men, septicg, and agnostics, used to come and listen to him. I heard of this man, and I went to hear him. He looked just like an ordinary man, with nothing remarkable about him. He used the most simple language, and I thought, ' Can this man be a great teacher ?' I crept near to him and asked him the question which I had been asking others all my life : " Do you believe in God, Sir ?" 'Oh, Yes,' he replied. " Can you prove it, Sir ?" 'Certainly, Yes !' " How you may do this  ?" ' Because I see him just as I see you here, only in a much intense sense.' That impressed me at once. For the first time I found who dared to say that he saw God, I found that his religion was a reality, to be felt, to be sensed in an infinitely more intense way than we can sense the world. I began to go to that man, day after day, and I actually saw that religion could be given.One touch, One glance, can change a whole life ....When I myself saw this man, all septicism was brushed aside....

SWAMI VIVEKANANDA

                                                              ॐ स्थाप्काय च धर्मस्य सर्व धर्म स्वरूपिन्यै ! 
अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमो नमः !!

जतो मत ततो पथ

      Religion is one
 Religions are many
निरंजनं नित्यमनन्त स्वरुपं                                           भक्तानुकंपाघृत विग्रहं वै !
ईशावतारं परमेशमिदयं                                          त्वं रामकृष्ण शिरसा नमामि !!

 

 The         Symphony        of      BHARAT.

जो शाश्वत आध्यात्मिक भारत है _श्री रामकृष्ण उसकी आत्मा हैं !   आधुनिक भारत की वे आत्मा हैं !
SRI RAMKRISHN PARAMHANS DEV has established by his own experience and experiences that the eternal spirituality of Bharat / India which rests on the truth and faith, and also by way of which science and philosophy are being fruitful for the world humanity. The innocent and ignorant know little that Hindu has believe  in only thirty three millions of its deities ; but, whereas the fact that Hinduism is faithful to that  one magnificent Empire of GOD & ALMIGHTY whom we try to inaugurate by several Names and Nouns. 
In the recent years Sri Ramakrishna was the only sage who's life  devotion was GOD ward. His saintly life was  fully renounced in the feet of Thou Mother of Universe MAA JAGDAMBA_MAA KALI but at the same time  he also got     experienced of Oneness of that Omnipresent which triumph by way of different esplanade   of the religion.
                                                             Sri Sri Ramkrishna has confirmed  severally the Omnipotent Empire of GOD. ​​




   SPIRITUAL GIANT

 SRI SRI RAMKRISHN PARAMHANS DEV

He also experienced the Omniscient by taking roughest and deepest pathway of different religions. He offered his best worship as whole day Namaj to ALLAH or KHUDA under the guidance  of Islamic Teacher. He also gone through the Christianity and offered his best Prayer to the GOD in Church under the guidance of Christian Teacher. Finally Sri Ramkrishna has flared the existence of Omnipresence of Omnipotent.   

SRI SRI RAMKRISHN TEMPLE

IN THE FEET OF RAMAKRISHNA

SRI SRI RAMAKRISHNA

MAIN TEMPLE BELUR

MAIN ENTRY

PRAYER HALL
श्री रामकृष्ण देव का जन्म           :   18 फरबरी 1836 ई0 I
श्री रामकृष्ण देव जी की समाधि  :  16 अगस्त 1886 ई0 I




अद्भुत सपना देख खुदीराम घर की ओर चल पड़े I रामकृष्ण के जन्म में आश्चर्यचकित करने वाली तीन घटनाएं उल्लेखित हैं -- जब माता चंद्रमणि गर्भवती थी तो गाँव के शिवालय में पूजा-अर्चना करते हुए उन्हें एक दिन शिवलिंग से दिव्य प्रकाश पुंज निकल इनके गर्भ में समा गयी ; दुसरा इनके जन्म के समय माता की प्रसव परिचर्चा करती हुई धाय जन्म के कुछ क्षण पश्चात ही नहीं देखने के कारण खोज करने पर श्री रामकृष्ण को समीप के चूल्हे की राख में लिपटे हुए पाया और तीसरा इनके पिता के द्वारा गयाजी में देखा गया वह अनोखा स्वप्न !​ माता-पिता ने इनका नामकरण गदाधर चट्टोपाध्याय रखा और गाँव के लोग प्यार से गदाई कहने लगे श्री रामकृष्ण बाल्यकाल से ही भिन्न प्रकृति वाले बालक दिखने लगे थे जहां-तहां वे संज्ञा शून्य समाधिस्थ हो जाते थे, पाठशाला की पढाई में इन्हें तनिक भी रूचि नहीं थी ऐसे पाठ को जो मात्र अपने लिए रोटी कमाने की शिक्षा दे उसे वे निकृष्ट ज्ञान कहते रहे थे I


गदाधर के 7 वर्ष की आयु सन 1843 ई0 में पिता के देहावसान के पश्चात गदाधर अपने माता को गृह कार्य एवं पूजा पाठ में हाथ बटाते रहते थे,12 वर्ष की आयु तक गदाधर यदा-कदा पाठशाला जाकर अक्षर ज्ञान प्राप्त कर ली थी I घर की आर्थिक स्थिति तो पहले से ही बदत्तर रही थी सारा भार बड़े भाई रामकुमार के ऊपर था जो कलकत्ता में रह कर पंडिताई करते थे और साथ में उन्होंने एक संस्कृत विद्यालय भी खोल रखा था I सन 1852 ई0 में रामकुमार कामारपुकुर जाकर अपनी सहायता हेतु गदाधर को कलकत्ता लिवा लाये जहां गदाधर ख़ुशी-ख़ुशी अपने बड़े भाई का हाथ बंटा रहे थे I इस बीच सन 1855 ई0 में कलकत्ता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर की स्वामिनी रानी रासमणि ने पंडित रामकुमार को इस मंदिर का पुजारी नियुक्त कर दिया I गदाधर अपने भतीजे ह्रदय के साथ अपने बड़े भाई को मंदिर के पूजा-पाठ में सहायता किया करते थे I गदाधर और ह्रदय के साथ मिलकर माँ काली के लिए फुल-माला बनाने और सजाने-संवारने का कार्य भाव विभोर होकर किया करते थे I कि अचानक बड़े भाई रामकुमार का देहांत सन 1856 ई0 में हो जाने के पश्चात रानी रासमणि ने गदाधर को मंदिर का पुजारी नियुक्त कर दिया I गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर के पुजारी रूप में माँ भक्ति की पूजा-अर्चना बड़े ही तन्मयता और भाव विह्वलता से करते थे जिसे देखकर लोग उन्हें विक्षिप्त की दृष्टि से भी देखने लगे थे I  यहीं से आरम्भ हुआ गदाधर के रामकृष्ण  से परमहंस बनने तक का संयोग !  यहीं से आरम्भ हुआ गदाधर के रामकृष्ण से परमहंस बनने तक का संयोग ! एक साधारण निरक्षर, धर्म-शास्त्रों से अज्ञान पुजारी का पूजा-पाठ, जप-तप से लेकर निर्विकल्प समाधि तक की सफल यात्रा इस आधुनिक काल में श्रीरामकृष्ण जैसा भक्ति-योगी के लिए ही सम्भव हो सका था !

सर्वप्रथम दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी के रूप में श्री रामकृष्ण माँ काली की पूजा ऐसी तन्मयता और भक्ति भाव से करने लगे थे जैसी भक्ति का गुणगान मीरा बाई या चैतन्य महाप्रभु अथवा भक्त प्रहलाद या ध्रूव को साक्षात भक्ति में तल्लीन पा रहे हों ! एक साधारण पुजारी से  निर्विकल्प समाधि तक पहुँचने तक का जो कठिन मार्ग श्री रामकृष्ण ने तय किया वह किसी कठोर तपस्वी ऋषि-मुनि से ही सम्भव था ! दिनानुदिन श्रीरामकृष्ण की माँ काली में भक्ति कठोरतम से कठोरतम होती चली जा रही थी, सर्वदा वे माँ माँ कर बडबडाते, रोते-चीखते-चिल्लाते, विलखते यहाँ तक कि दिन बीत जाने पर मंदिर में रात-रात भर अपना मुँह धरती पर रगड़-रगड़ लहू-लहुआन माँ से कहते कि हा माँ ! आज भी तूने दर्शन नहीं दिया माँ, आज भी तूने मुझे नहीं अपनाया माँ ! इससे भी आत्म संतुष्ट न हो पाने पर समीप के घनी झाड़ियों में रात-रात भर पत्थर पर मुँह रगड़ते रोते पाए जाने लगे थे रामकृष्ण !  आजीवन ब्रम्हचर्य की भीष्म तपस्चर्या की प्रतिज्ञा तो उन्होंने ले ही रखी थी फिर कामिनी-कांचन से भी दूर रहने का संकल्प ले रखा था ! यद्दपि श्रीरामकृष्ण ने निकट के उत्तर-पश्चिम में स्थित जयरामवाटी ग्राम के रामचंद्र मुखर्जी की पांच वर्षीय पुत्री शारदामणि से सन 1859 ई0 में विवाह भी किया था ; श्रीरामकृष्ण के विवाह का प्रसंग भी अदभुत ही है !
श्री रामकृष्ण का जन्म :
श्रीरामकृष्ण अर्चना 

विडिओ दिग्दर्शन 
 

श्री रामकृष्ण देव जी का जन्म बंगाल के कामारपुकुर ग्राम के एक बहुत ही निर्धन ब्राम्हण परिवार में हुआ था I इनके माता जी का नाम चंद्रमणि और पिता का नाम खुदीराम चट्टोपाध्याय था I जब श्री रामकृष्ण माता के गर्भ में थे तो इनके पिता तीर्थाटन करते हुए गया पहुंचे थे वहाँ वे एक दिन एक वृक्ष के निचे विश्राम करते एक अद्भुत स्वप्न देखा गदाधर भगवान् विष्णु स्वयं आकर उनसे कह रहे है कि वे उनके घर पधारनेवाले हैं I गया बिहार स्थित एक तीर्थस्थल है यह तीन तथ्यों के लिए प्रसिद्द है I प्रथम यहाँ भगवान् विष्णु का शेषशैय्या पर लेते हुए चतुर्भुज गदाधर स्वरुप का प्राचीन मंदिर है ; दुसरा सनातन धर्मानुसार पूर्वजों के लिए उत्तराधिकारी पिंड दान समर्पित कर अपने-अपने पूर्वजों के मोक्ष की कामना करते है और तीसरा कि गया में ही भगवान् बुद्ध को महाबोधि वट बृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी I​

 

एक निरक्षर योगी का नित्य शुद्ध-विशुद्ध वेदान्तिक साधना और सनातन धर्म-प्रवृति के साथ-साथ स्वच्छ, निर्मल,        पवित्र  निश्छलता से इश्वारालाभ करना आधुनिक युग में श्रीरामकृष्ण जैसे ऋषि से ही सम्भव हो सका था !

 

माँ से साक्षात्कार 
कलकत्ता में माँ काली की भक्ति में सुध-बुध खो रहे श्रीरामकृष्ण अस्वाभाविक तपस्चर्या ने उन्हें विक्षिप्तावस्था तक पहुंचा दिया था, वे दिन भर माता को कभी मंदिर में तो कभी जंगलो और झड़ियों में पुकारते रहते ; हे माँ ! तूने आज भी मुझे दर्शन से बंचित ही रखा ; कब मैं तेरा दर्शन करूंगा माँ ! माँ के लिए रोते रोते उनका मुंह-आँख सूज जाता था, माँ-माँ चिल्लाते-चिल्लाते उनका गला फट जाता था तब भी माँ का दर्शन नहीं हो पाया श्रीरामकृष्ण को ! एक दिन वे जब मंदिर में माँ की पूजा कर रहे थे तो अचानक उन्हें एक भीषण विचार आया कि यह जीवन व्यर्थ हो गया, माँ दर्शन नहीं देती तो जी कर क्या लाभ और ऐसा निर्णय कर डाला जिसे सोच कर ही मन-मष्तिष्क सिहर उठता है I श्री रामकृष्ण का धैर्य टूट चुका था उन्होंने प्राण त्याग कर देने का विचार कर डाला_मंदिर के द्वार बंद कर एकाएक माँ चतुर्भुज के हाथों से झपट कर उन्होंने षड्ग को उतार अपने गले पर वार करने को उद्यत हो गए_ यही वह पल था जो श्रीरामकृष्ण को परमहंस बना डाला ! यही वह दिन या शुभ तिथि थी जिसने श्रीरामकृष्ण को निर्विकल्प समाधि के शिखर तक का वरदान प्राप्त करने का द्वार खोल दिया था !

 

               

 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
उस दिन उस भीषण काल में मंदिर के अन्दर जो घटित हुआ वह उस योगी के भी कल्पना के पड़े था ! श्रीरामकृष्ण के सम्मुख माँ काली के विशाल और विकराल भव्य मूर्ति जैसे सजीव हो उठी, एक भूकंप सा हलचल ने मंदिर को कम्पायमान कर दिया मंदिर के एक एक कर सभी दीवाल श्रीरामकृष्ण के सामने से विलुप्त होते चले जा रहे थे और फिर उन्होंने स्वयं को प्रकाश की एक अथाह समुद्र में डूबते  उतराते पाया ! यह प्रकाश की असीमित ज्योति माँ काली के भव्य मूर्ति से श्रोत और प्रसारित हो रही थी ! प्रकाश की उस अथाह समुद्र में भी श्रीरामकृष्ण के आँखों को शीतलता का अनुभव हो रहा था, एक शीतल-निर्मल-पवित्र प्रकाश जिसकी दिव्यता घनीभूत होती हुई माँ की छवि में स्पष्ट हो रहा था रामकृष्ण की दृष्टि स्थिर हो चुकी थी बिना पलक झपकाए वे माँ की मूर्ति को सजीव होते सद्यः देख पा रहे थे माँ का आविर्भाव श्री रामकृष्ण के सम्मुख स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था ! माँ की कान्ति से पूरा मंदिर क्षेत्र प्रकाशित हो रहा था, माँ की मुखमंडल की आभा से रामकृष्ण भाव-विभोर थे या संज्ञा-शून्य उन्हें पता नहीं ! फिर माँ की वीणा सी झंकृत सुमधुर वाणी श्रीरामकृष्ण के कानों में पड़ी तब जाकर कहीं उनकी चेतना जगी ! माँ ने रामकृष्ण के उलझे रूखे बालो वाले सर को अपने हाथों से सहलाते हुए बोली-बेटा, तुझे मेरी क्या आवश्यकता हो गयी जो तूने ऐसा कठोर निर्णय कर मुझे यहाँ आने को विवश कर दिया ? मैं तो सदैव तेरे साथ ही तो रहती थी, तेरी पूजा ही से तो मैं पूर्ण संतुष्ट थी, तेरे अर्पित भोग का स्वाद तो मुझे प्रति दिन आनन्दित करते रहे हैं; बोल तुझे क्या चाहिए जो मांगना है आज मांग ले ! अब रामकृष्ण के सम्मुख विकट स्थिति थी वे निर्वाक माँ के चरणों पर लोट कर विलाप कर रहे थे माँ मुझे कुछ नहीं चाहिए मैं कुछ लेकर क्या करूंगा माँ तूने आज दर्शन दे दिया माँ मुझे सब कुछ मिल गया माँ मैं धन्य हुआ माँ ! रोते विलखते श्री रामकृष्ण का हर बात पर माँ-माँ का क्रंदन ही था_मेरा मानव जीवन सफल हो गया माँ ; श्रीरामकृष्ण इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं मांग रहे थे रामकृष्ण अपनी माँ से जो उनके सम्मुख सशरीर उपस्थित होकर उन्हें आज कुछ भी देने आयी थी ! फिर भी एक बालक की भांति रामकृष्ण के करुण-क्रंदन से द्रवित हो कर माँ ने स्वयं ही आगे बढ़ श्रीरामकृष्ण को आशीर्वाद दिया कि जब-कभी और कहीं मुझे स्मरण करने पर मैं सशरीर तेरी सहायता-रक्षा के लिए उपस्थित रहूंगी ! माँ के स्व-आशीर्वचनों से अचंभित श्रीरामकृष्ण की तंद्रा भंग हुई और वे कातर हो बोल पड़े नहीं माँ मुझे कुछ नहीं चाहिए आपने दर्शन दिया, मेरी आर्त्त सुनी बस मुझे और क्या चाहिए माँ ? इस क्षण-भंगुर क्लांत सांसारिक शरीर को आपने दर्शन देकर मुझे सब कुछ दे दिया माँ ! श्रीरामकृष्ण के द्वारा कुछ भी न मांग पाने पर माँ ने पुनः रामकृष्ण को कहा मैं सर्वदा तेरे मंदिर में रहूंगी जब भी इच्छा हो स्मरण कर लेना मैं साकार रहूंगी !                        

 

श्री रामकृष्ण के बारे में यह भी प्रचलित है कि माँ जगदम्बा अपने दक्षिणेश्वर काली मंदिर के उस निरक्षर पुजारी को प्रतिदिन साक्षात दर्शन ही नहीं देती थी बल्कि अपने ममत्व और स्नेह की इतनीवर्षा करती थी जिसका आध्यात्मिक जगत में कोई दुसरा उदाहरण नहीं मिलता I श्रीरामकृष्ण के द्वारा अर्पित भोग  को स्वीकार कर उनके ही हाथ से भोग को खाती, घंटो हंसती-बोलती-खेलती और अनेको तरह के वार्तालाप करती, रामकृष्ण के गाये भजन को सुनती I मंदिर की निर्जनता में मंदिर के अन्य लोगबाग माँ की उपस्थिति को तो नहीं देख पाते थे परन्तु श्रीरामकृष्ण को आनंदमय भाव-विभोर की स्थिति में इन वार्तालापों-संवादों और क्रियाकलापों को अवश्य देख-सुन और अनुभव कर पा रहे थे I श्रीरामकृष्ण के साथ माता के दर्शन तो किसी अन्य को नहीं हो पाता थाफिर भी मंदिर में उन्हें किसी पारलौकिक स्त्री-कंठ के सुमधुर झंकृत वार्तालाप का आभास अवश्य हो जाता था विशेषकर रामकृष्ण के भजन गाने और नाचने की भाव-भंगिमा पर यह अनुभूति अन्य लोगों को भी स्पष्ट हो जाती थी ! फिर इन बातों पर विश्वास तब और भी दृढ हो जाता था जब श्रीरामकृष्ण से लोगों के द्वारा कोई  प्रश्न पूछने पर 'माँ से पूछ कर बताउंगा' ऐसा कह जब वे उत्तर देते तो वैसा ही प्रमाणित हुआ करता था !  ऐसा था श्री रामकृष्ण और माता के परस्पर अलौकिक संवाद ममत्व व् वात्सल्य की, माता और पुत्र के सत्संग की !  आधुनिक काल में श्रीरामकृष्ण एक ऐसे ऋषि का भारत में आविर्भाव हुआ जिसने प्रमाणिकता के साथ माता की छवि में उस आनंदमय परमपिता परमेश्वर - सत्य सनातन सच्चिदानंद ब्रम्ह की-निर्विकार निर्गुण निःशब्द विश्वरूप का मात्र साक्षात्कार ही नहीं किया बरन अपनी प्रबल साधना से उनके साकार रूप में दर्शन पाने का आशीर्वाद पाया !                              

 

आधुनिक काल में श्रीरामकृष्ण एक ऐसे ऋषि का भारत में आविर्भाव हुआ जिसने प्रमाणिकता के साथ माता की छवि में उस आनंदमय परमपिता परमेश्वर - सत्य सनातन सच्चिदानंद ब्रम्ह की-निर्विकार निर्गुण निःशब्द विश्वरूप का मात्र साक्षात्कार ही नहीं किया बरन अपनी प्रबल साधना से उनके साकार रूप में दर्शन पाने का आशीर्वाद पाया !
 
यह आधुनिक काल जिसे हम वैज्ञानिक युग कहते हैं अर्थात जितना हमारा दृष्टि देखता है हम उसी को मान पाते हैं दृष्टि से परे कुछ भी असत्य है ऐसा ही हम जान पाते हैं I दृष्टिगोचर पदार्थों के पीछे हम भागते रहते है, उसी को पाना चाहते हैं और उसी का भरपूर भोग स्वयं में करना चाहते हैं इसके आगे कुछ भी नहीं ऐसा हम मान बैठे हैं I इस स्व अर्थात जो दृष्टिगोचर है जो संकीर्णता है वह विश्वरूप कैसे हो सकता है फिर भी हम विश्वबंधुत्व के सपनों में खोये हैं मात्र इस लिए कि अपने अधिनस्थ कर सकें और फिर भोग कर सकें I इस स्व और पर के परस्पर विरोधाभासक दृष्टिकोण से कैसे यह सम्भव हो सकेगा ? स्व संकीर्ण और संकुचित है पर विशाल और व्यापक है जिसका कोई ओर-छोर नहीं ! विश्व एक है स्व अनेक, अनेक स्व मिलकर ही एक हो सकता है !
 
श्रीरामकृष्ण इसी अनेक स्व को एक परम सत्य को अपनी जप-तप-साधना से पुनर्भाषित किया है : 
 

श्री रामकृष्ण ने किसी भिन्न समुदाय की स्थापना नहीं की है बल्कि सत्य सनातन वैदिक धर्म को पुनर्जीवित अपनी तपस्या और साधना से शक्ति संपन्न किया है ! सभी मतों सभी भावों सभी पथों के मनुष्यों के लिए इश्वर प्राप्ति के मार्गों को और अधिक स्पष्टता से अन्तर्निहित देवत्व को सुगम दिशा प्रदान की है ! एक मनुष्य अपनी रूचि, भाव, बुद्धि और ज्ञान से जो कुछ आध्यात्मिक विकास, उन्नति और ग्रहण कर सकता है उस मार्ग को प्रशस्त किया है ! श्रीरामकृष्ण की दिशा किसी विशेष देश, काल या धर्म की संकुचित भावना को व्यापक आधार प्रदान किया है ! उन्होंने कहा है-- चाहे जैसे भी हो तुम इश्वर की प्राप्ति करो ; जैसे भी का अर्थ है चाहे प्रेम भक्ति से हो, त्याग-तपस्या से हो, चाहे योग साधना से हो या गृहस्थ जीवन यापन करके हो ; यही मानव का परम लक्ष्य है परम ध्येय है ! कोई निश्चित पथ नहीं, तुम रूचि और सामर्थ्य से आगे बढ़ो ! तुम खिड़की से जाओ या मुख्य द्वार से, राज पथ से जाओ या गली-कुचे से मात्र मार्ग की बाधाओं की न्यूनता या अधिकता को लांघना है ! अपनी अन्तर्निहित देवत्व की अपूर्णता को पूर्णता प्रदान करो ! वेद, बाईबिल और कुऱान में अन्तर्निहित लक्ष्य क्या है उसे पाने के लिए रामकृष्ण के आलोकित पथ सुगमता प्रदान करती है ! बोस्टन कॉलेज के तत्कालीन प्राध्यापक के अनुसार_"One can understand Chiristianity only in the light of Sriramkrishna."...... J. Suet, Father.     

 


                                             

                            

       मुख्य मंदिर 

माँ दक्षिणेश्वर काली      

     

       

माँ दक्षिणेश्वर काली      

     

 

माँ दक्षिणेश्वर काली      

     

मुख्य मंदिर 

     

     

साक्षात माँ दक्षिणेश्वर काली

 मुख्य द्वार 

                                        प्रत्येक आत्मा एक अव्यक्त ब्रम्ह है, आवश्यकता है इसके अज्ञानता के परत उतारने की !

                                             पशु एक ऐसा वृत्त है जिसका परिधि सिमित है और इसका कोई केंद्र भी नहीं होता,                                                                                                         मनुष्य एक ऐसा वृत्त है जिसका परिधि असीम है पर इसका एक केंद्र होता है !                                                                                              ईश्वर एक ऐसे वृत्त हैं जिनका परिधि असीम है और केंद्र सर्वत्र ही होता है ...........श्री श्रीरामकृष्ण !!

 

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श्रीरामकृष्ण का वैशिष्ट्य क्या है ? उनकी वैशिष्ट्य है प्रत्यक्ष अनुभूति ! वे कहते हैं काशी के बारे बहुत पढ़ा-सुना मानचित्र देखा परन्तु जाना काशी जाकर वहाँ गंगा किनारे घूमकर, सड़क पर चलकर, मंदिर जाकर, साधू-सन्यासियों साथ वार्तालाप से ही काशी को तो जान सका ! श्रीरामकृष्ण प्रत्यक्ष दर्शन की बात कहते ! ईश्वर के प्रति भी उनकी यही धारणा बनी, प्रत्यक्ष अनुभूति अथवा साक्षात दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता और यह साक्षात ज्ञान की प्राप्ति की चेष्टा ने ही उन्हें साधारण पंडित-पुजारी से एक वैदिक-ऋषि की श्रेणी तक जा पहुंचा दिया ! उन्होंने दृढ़ता से कहा है मैंने सोलहो आने किया है_धर्मजगत में जो ज्ञान विश्लेषित और विख्यात है उसे थोडा बहुत नहीं पूर्णरूपेण जान सका हूँ मैं ! 

स्वामी विवेकानंद की ईश्वर को जानने की पिपासा और क्षुधा को उन्होंने दृढ़ता से बताकर शांत किया था कि " हाँ, मैंने देखा है भगवान् को इस प्रकार नहीं जिस प्रकार तुम मेरे सम्मुख खड़े हो इससे और अधिक स्पष्टता से और अधिक निकटता से उनका साहचर्य मिलता है मुझे उस परम पिता परमेश्वर का,   उस सत्य सनातन सच्चिदानंद का, उस परमात्मा ब्रम्ह का जो साकार जगत में इश्वर, भगवान्, अल्लाह, खुदा, गॉड, राम, कृष्ण, बुद्ध या महावीर कहलाते रहे हैं ! मैं ईश्वर रूपी ब्रम्ह का साक्षात्कार करता हूँ, मेरे साथ वे माता भवतारिणी काली माँ के स्वरूप में हंसती है खेलती है खाती है शंकाओं का समाधान करती है !" 

 

जो कुछ महत है, जो कुछ सुन्दर है, उसका चिंतन करना, उसके सम्बन्ध में जानना, सम्भव हुआ तो थोडा बहुत उसके रूप का वर्णन करना परन्तु श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में जब कोई कुछ कहता है तो यह एक ऐसे मानव के वर्णन की चेष्टा करने की होती है जो वर्णनातीत है, उस स्वरुप को गढ़ना कठिन है I यद्दपि ऐसी चेष्टा दुर्बल और व्यर्थ लगती है, फिर भी इसकी सार्थकता है I

 

श्री रामकृष्ण देव के सर्वोत्तम और सर्वप्रिय शिष्य विश्ववरेण्य स्वामी विवेकानंद जी ने किसी गुरु भाई के पूछने पर कि ठाकुर के बारे में विस्तार से समझाओ तो स्वामी जी ने कहा था-" क्या बताऊँ ! डरता हूँ उस विराट का वर्णन करने से, शिव की प्रतिमा गढ़ते-गढ़ते कहीं बन्दर न गढ़ डालूं !"

एक बार एक उच्च  शिक्षित व्यक्ति के द्वारा श्रीमद भगवत गीता की प्रशंसा करने पर श्री रामकृष्ण ने टोका था कि क्या किसी लाट साहेब            ( अंग्रेज अधिकारी ) ने ऐसा कहा है? इस व्यंग से उस समय के तथाकथित उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयों के मनोभावों को समझा जा सकता है !   श्रीरामकृष्ण आगे कहते थे यह पटवारी बुद्धि से अपने साहेब की बात कह रहा है ! उस समय धर्म को लेकर भयंकर तर्क-वितर्क होता था, कौन सा धर्म श्रेष्ठ इस पर ही विवाद था I अंग्रेज के क्रिश्चियन धर्म के कारण भारत में तीन-तीन धर्मो की उपस्थिति से फसाद बढ़ता ही जा रहा था I 

श्री रामकृष्ण आधुनिक काल वे ऋषि हैं जिन्होंने वैदिक-सनातन धर्म के बारे में जितना कुछ कह गए हैं उससे आगे कोई कुछ भी कह पायेगा नहीं लगता ? श्री रामकृष्ण धर्म के बारे में कहते थे--एकमात्र मेरी ही घडी ही ठीक है और सारी घड़ियाँ गलत है I इस संकीर्णता की उन्होंने कठोर निंदा करते थे ; इसी संकीर्णता से धर्म के बारे जानने वाले समस्याएं खड़ी करते रहते हैं, परस्पर हिंसा, द्वेष, संघर्ष यहाँ तक रक्तपात भी ! 

 

धर्म मानव को पशु से मनुष्य फिर देवत्व की ओर उर्ध्वगामी बनाता है, विभिन्न मनुष्य जातियों के बीच एकता लाता है, प्रेम-प्रीत जगाता है और भाई-चारा की पाठ पढाता है, लोगों में धार्मिकता तो बढती जाती है परन्तु दिनानुदिन यह कलह, विद्वेष, असहिष्णुता, मार-पीट और हिंसा से पूरा मानव समाज पीड़ित हो कराह रहा है I यह धर्म विषयक अज्ञानता की पराकाष्ठा है, और अज्ञानता की इस घटाटोप अन्धकार को मिटाने और  धार्मिक  कट्टरता मिटाने हेतु ही श्री रामकृष्ण का आविर्भाव है !

                                              

                                                                                                                                                                                                     "  श्री ठाकुर का सर्वधर्म समभाव  "


 

श्री रामकृष्ण परमहंस देव जी ने जितने भावों की साधना की है, शायद ही कोई संत महात्मा फ़क़ीर ने ऐसा किया हो, इश्वरानुभुति पाने के लिए श्री श्रीठाकुर ने चौदह पद्धतियों से माता जगदम्बा की साधना कर उस ब्रम्हानंद की अनुभूति किया है जिसे विभिन्न धर्मालाम्बी विभिन्न नाम रूपों में जानते हैं ; वैदिक सनातनी उसे ब्रम्ह जानते हैं तो वैष्णव उसे हरि या नारायण कहते हैं ; शैव या शाक्त उसे शिव और माता जानते हैं ; तो इसाई उसे गॉड जानते हैं, इस्लाम में अल्लाह जानते हैं ; कोई इश्वर को राम मय जानता है तो कोई विराट कृष्ण में इश्वर मानता है ; कोई भगवान् बुद्ध तो कोई महावीर,  कोई नानक तो कोई कबीर  अनंत नाम से स्मरण करने वाला उस अव्यक्त ब्रम्ह को ही पूजता है_" हरि अनंत हरी कथा अनंता" ! जो सर्व भूतों में समान रूप से विराजमान है, आदि भी है अंत भी फिर अनंत भी वही, आकार भी वही प्रकार भी वही फिर निराकार भी वही, सगुण भी वही निर्गुण भी वही फिर सर्वगुण भी वही, व्यक्त भी वही अव्यक्त भी वही फिर सर्वव्यक्त भी वही ! इस सर्व व्यापी ब्रम्ह को ही माता जान श्री रामकृष्ण देव ने चौदह पद्धतियों से चौदह धर्म गुरुओं से दिक्षित हो उनके मार्ग दर्शन में चौदहों बार सीधियां प्राप्त कर ईश्वरानुभूति करने में सफल रहे थे यहाँ तक कि इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म गुरुओं के सानिध्य से उन्होंने इश्वर-दर्शन का लाभ प्राप्त करने में सफलता पायी थी ! माँ जगदम्बा से उन्हें यह विशेष कृपा हुई थी कि माँ ने उन्हें सब दिखा दिया था I यही रामकृष्ण देव की विशेषता है ! बाद में वे स्वयं कहा करते थे कि उन्हें सभी धर्मो को जांच परख कर देखना पड़ा कि सारे धर्मों का लक्ष्य एक ही है, सभी धर्म मनुष्य को ईश्वर के पास पहुंचाने के भिन्न और उचित मार्ग हैं !

 

धर्म की अप्रमाणिक व्याख्या, धार्मिक अंधविश्वास, धर्मान्धता सर्वोपरि धार्मिक  ठेकेदारों का स्वार्थवश धर्म के मर्म से जनसाधारण के साथ धार्मिक ठगी, धोखा, फरेब करना आदि अधार्मिक पाप ने ही यह वैमनस्य भाव से अपने अपने धर्म के अनुयायियों को छलते रहे हैं  

 

 


      

                            

 

श्री श्रीरामकृष्ण का वैशिष्ट्य : 
यदि भगवान् हैं तो उनकी अनुभूति करो यही ध्येय है मनुष्य जीवन का !      

 

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"Can you weep for Him with intense longing of heart? Men shed a jugful of tears for the sake of their children, for their wives, or for money. But who weeps for God? So long as the child remains engrossed with its toys, the mother looks after her cooking and other household duties. But when the child no longer relishes the toys, it throws them aside and yells for its mother. Then the mother takes the rice-pot down from the hearth, runs in haste, and takes the child in her arms."

Sri Ramakrishna Paramahamsa 
(Dakshineshwar 1884)

 

 

 

 

 

" ONE CAN ASCEND TO THE TOP OF A HOUSE BY MEANS OF LADDER, OR A BAMBOO OR A STAIRCASE OR A ROPE SO TOO, DIVERSE ARE THE WAYS OF APPROACHING GOD AND RELIGION IN THE WORLD SHOWS ONE OF THESE PATHS ! "                  ....... SRI SRIRAMKRISHN DEV.

 

 

 

 

SRI SRIRAMKRISHNA was born in a small village of Kamarpukur in West Bengal more than 175 years ago. He moved to Kolkata to assist his elder brother appointed as a priest in MAA DAKSHINESHWAR KALI temple. Those days Kolkata was growing centre of education, culture under influence of western thoughts. Sri Ramkrishna performed his various Sadhna under the sparkle of different religions, and preached his universal teachings amongst uppermost personalities and as well to youngsters and tean aged of the city. 

The dedicated group of devotees from aged and young were torch bearers of his lofty gospel. His Naren_Narendra Nath Dutt later on Swami Vivekananda, his frontline disciple, understood him in deepth and built a concrete pathways to the current of his Master's universal message not only in own land but all around the World also. Swami Vivekanandaji founded a new order of young monk under the banner of "Sri Ramkrishna Math And Mission" in 1886 at Baranagar House, Kolkata, the first monastery of this order.    
 

स्वामी विवेकानंदजी ने श्रीरामकृष्ण के लिए कहा था - " उस असीम का उद्घाटन करना मेरे वश में नहीं, डरता हूँ शिव की प्रतिमा गढ़ते-गढ़ते कहीं बन्दर की मूर्ति ना बना डालूं I " श्रीरामकृष्ण के लिए यह बात कितनी सटीक प्रतीत होती है यह उनके कठोर तप का परिणाम है जिसके बल पर उन्होंने उस चिरन्तर सत्य का अन्वेषण कर उसका साक्षात्कार किया था, उस सनातन सत्य का प्रमाण किया था जिस ईश्वर का वास सर्वभूतों में समान रूप से उपस्थिति होने मात्र से ही भौतिक पदार्तों का अस्तित्व बना रह सकता है I जैसे ही उस अखंड ब्रम्हानंद की अनुपस्थिति होती है वह पदार्थ या जीव अपना अस्तित्व खो बैठता है I जबतक वह हममे विराजमान रहता है हम बजते रहते हैं और जैसे ही उस परम सत्ता का लोप होता है हम समाप्त हो जाते हैं, हमारे अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए लुप्त हो जाता है ! उस परब्रम्ह परमानन्द की श्रीरामकृष्ण ने माँ काली की उपासना की थी और माता ने उन्हें पुत्रवत अपनाकर अपने अभय ममत्व के आँचल की छावँ प्रदान कर रखा था I भला इस असीम की व्याख्या स्वामी विवेकानंद से भी सम्भव हो पायी थी I श्रीरामकृष्ण अपने अनुभूति को इस प्रकार व्यक्त करते थे - " माँ की इस मूर्ति में ईश्वर है कि नहीं यह अनुभव करने की बात हो सकती है परन्तु ईश्वर को कभी मूर्ति समझने की भूल मत करना मैंने उस चिरन्तर आलोकित परम ब्रम्ह परमेश्वर का इस माँ की मूर्ति में ही सद्यः दर्शन और साक्षात्कार किया है !" इस अखंड अन्तरिक्ष ब्रम्हांड के सम्पूर्ण चेतना का मूल उद्गम वह ईश्वर ही है, समस्त भौतिक जगत के पदार्थ और जीवों जीवन-शक्ति के श्रोत और रचयिता वह ब्रम्हानंद ही हैं जिन्हें चराचर जीव-जगत अनेकानेक नामों से पुकारते हुए ईश्वर, परमेश्वर या खुदा मानता है ! 

 

 

 

 

 

 

 

 

 
 

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